बस हड्डियाँ ही दिखती हैं उस शरीर से
बह रहा है नीर हर अंग से
सूरज भी जल रहा है तपन से
प्याज भी निरीह है लपट के थपेड़ों से
अनजान है कर्म और अर्थ के योग से
भाग्य भी असमर्थ है उसकी वेदना से
विक्षिप्त सा है अंतर्द्वंद की ज्वाला से
बस तन्मय हो !
तोड़ रहा है पत्थर दो वक्त की रोटी की आश से !!
मेरी आवाज
8 comments:
सुंदर भावाभिव्यक्ति।
मार्मिक विधान, परिस्थितियों का।
अति सुन्दर!
दर्द की अभिव्यक्ति का अच्छा प्रयास।
..नीर-स्वेद?
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धन्यवाद
दिनेश पारीक
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