अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ
जश्ने बहारों का रेला मेरी तरफ नहीं तो क्या हुआ
आवाज तो गूंजेगी
मेरे सतत चिन्तन से
अनवरत सत्य से
दीपक जलाता रहूँगा
आँधी के रेले हैं तो क्या हुआ
मरुस्थल में प्यासा हूँ तो क्या हुआ
रेत पर चलता रहूँगा
लिखता रहूँगा !!
6 comments:
"अकेला हूँ तो क्या हुआ"
बहुत सुन्दर .....
बहुत सुंदर। जोश और जज़्बे भरी बातें। एक शे’र कहने का मन बन गया -
अपने अपने हौसले की बात है
सूर्य से भिड़ते हुए जुगनू मिले।
जिसने दाना डाल कर पकड़ी बटेर
हां, उसी के जेब में चाकू मिले।
बहुत खूब!
अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ
लिखा हुआ वर्षों तक जीवित रहता है।
अरे भी तलवार नही तो क्या हुआ?सुई होना ही पर्याप्त है.लिखते रहो.'मरुश्थल'नही 'मरुस्थल' .
पार उतरेगा वही खेलेगा जो तूफ़ान से
मुश्किलें डरती रही है नौजवान इंसान से'...तो भाई जलने दो इन चरागों को कि एक ही बहुत तिमिर को चीरने के वास्ते.
इंदु बुआ जी, सही कर दिया है !
सुन्दर कविता........
उम्दा पोस्ट !!
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