Monday, October 18, 2010

अकेला हूँ तो क्या हुआ

अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ
जश्ने बहारों का रेला मेरी तरफ नहीं तो क्या हुआ
आवाज तो गूंजेगी
मेरे सतत चिन्तन से
अनवरत सत्य से
दीपक जलाता रहूँगा
आँधी के रेले हैं तो क्या हुआ
मरुस्थल में प्यासा हूँ तो क्या हुआ
रेत पर चलता रहूँगा
लिखता रहूँगा !!

6 comments:

Coral said...

"अकेला हूँ तो क्या हुआ"

बहुत सुन्दर .....

मनोज कुमार said...

बहुत सुंदर। जोश और जज़्बे भरी बातें। एक शे’र कहने का मन बन गया -

अपने अपने हौसले की बात है
सूर्य से भिड़ते हुए जुगनू मिले।
जिसने दाना डाल कर पकड़ी बटेर
हां, उसी के जेब में चाकू मिले।
बहुत खूब!
अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ

प्रवीण पाण्डेय said...

लिखा हुआ वर्षों तक जीवित रहता है।

Anonymous said...

अरे भी तलवार नही तो क्या हुआ?सुई होना ही पर्याप्त है.लिखते रहो.'मरुश्थल'नही 'मरुस्थल' .
पार उतरेगा वही खेलेगा जो तूफ़ान से
मुश्किलें डरती रही है नौजवान इंसान से'...तो भाई जलने दो इन चरागों को कि एक ही बहुत तिमिर को चीरने के वास्ते.

राम त्यागी said...

इंदु बुआ जी, सही कर दिया है !

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर कविता........
उम्दा पोस्ट !!