Tuesday, June 1, 2010

चाह और अनचाह

होटल पर मेरे बिस्तर पर पड़े हैं अनेक तकिये
बिना बात के सवार हैं ये मेहमान अनचाहे
गाँव में है बीमार बटाईदार
खटिया पर पडा है
दुखी है गरीबी और बीमारी से
खुश है की एक खाट तो है सोने
में फेंक देता हूँ अनचाही तकियों को
वो समेट लेता है मिलती हुई चीजों को
कहता रहता है बार बार
जहाँ चने वहाँ दांत नहीं और जहाँ दांत वहाँ चना नहीं


मेरी आवाज

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