Friday, June 25, 2010

चींटी

चींटी तू इतनी सी छोटी पर बड़ी है खोटी
तुझसे छुटकारे की दिखती नहीं कोई गोटी
दिखने में तो तू है नहीं बिलकुल भी मोटी
फिर इतना खाना किधर तू करती है कल्टी
क्रमबद्ध चींटी  सेना एकजुट होकर डटी
गिरकर बार बार चढती दीवाल ये चींटी 
हार कैसे सकती है ये छोटी सी चींटी

9 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

यह छोटी सी चींटी परिवार बनाकर रहती है इसीलिए इतना खाना सहेजती है। अच्‍छी कविता।

Udan Tashtari said...

सही कविता...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दुर्दिन का भी तो करती है, चींटी इंतजाम
कल वर्षा होनी ही है, आज भले हो घाम

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दुर्दिन का भी तो करती है, चींटी इंतजाम
कल वर्षा होनी ही है, आज भले हो घाम

स्वप्न मञ्जूषा said...

वैसे चीटियों का जीवन बहुत अनुशासित होता है....मनुष्य चाहे तो बहुत कुछ सीख सकता है ...
सही मायने में समय का सदुपयोग, श्रम विभाजन जैसी बातें उनकी सामजिक व्यवस्था में देखने को मिलती है...बहुत ही सुन्दर कविता...अच्छी बात किसी से भी सीख लेनी चाहिए...फिर वो चीटीं ही क्यों न हो...
आपने मेरे ब्लॉग पर आकर न सिर्फ मेरा मान बढाया मेरा हौसला भी बढाया...
हृदय से आभारी हूँ...

Akshitaa (Pakhi) said...

सुन्दर कविता...सार्थक सन्देश.


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'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !

लता 'हया' said...

शुक्रिया .

सुंदर जज़्बात

Anonymous said...

चींटी से बहुतों ने सिखा है और बहुत सिख सकते हैं - अच्छा सन्देश

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

जीने का मर्म सिखाती चींटी।
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किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?